मुलताई में...इक ओंकार सतनाम श्री वाहेगुरु
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- Nov 19, 2021
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गुरूनानक देव जी के मुलताई आगमन की 508वीं वर्षगांठ
अभिलेखों के अनुसार कार्तिक माह में सन् 1515 ई. में गुरूनानक देव जी गाडरवाड़ा और सोहागपुर होते हुए मुलताई में आकर रूके। इसके बाद वे पांढुरना होते हुए वे नागपुर से अमरावती गए। मुलताई में गुरूनानक देव जी ने संत समागम और प्रवचन दिए थे। यहां स्थित प्राचीन गुरूद्वारे का जीर्णोद्धार कर नवीनतम सुंदरतम गुरूद्वारे का निर्माण कर दिया गया है।

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सतपुड़ा पर्वत की सुरम्यवादियों में स्थित बैतूल को प्रकृति का अनुपम वरदान मिला है। वरदानस्वरूप ही बैतूल को ताप्ती-पूर्णा-वर्धा जैसी पौराणिक नदियां मिली हैं। हमारे देश में इन नदियों के पौराणिक महत्व को जानकर अनेक ऋषि-मुनि-मनीषियों-महापुरूषों ने इन नदियों किनारे जप-तप कर अपने स्वयं को धन्य किया। वहीं, अपने विचारों की गंगा से और अपने आगमन से इस भूमि को पावन भी किया है। नदियों किनारे संस्कृति का जन्म होता है और इन्हीं नदियों के किनारे सभ्यता भी फलती-फूलती है। बैतूल जिले की ताप्ती किनारे अनेक तीर्थ स्थल है। ताप्ती की उद्गम स्थल होने के कारण मुलताई को मुलतापी नाम से जाना जाता है।

ताप्ती के किनारे ही एक और तीर्थ श्रावणतीर्थ, तीन नदियों ताप्ती, तवा और अंभोरा के संगम के कारण लोकप्रिय है। साथ ही, बारहलिंग का क्षेत्र भी अपने अतीत के साथ कई पौराणिक कथाएंं समेटे है। इन नदियों के इन तीर्थ क्षेत्रों में युगों से कार्तिक पूर्णिमा को स्नान दान और दीपदान की परम्परा रही है। यही कारण है कि इन नदियों के किनारे मेलों का भी अपना महत्व रहा है।

मुलताई के साहित्यकार और जिले के साहित्य और संस्कृति के शोधकर्ता संजय पठाड़े "शेष' के अनुसार मुलताई को जिले के सांस्कृतिक नगरी होने का सौभाग्य मां ताप्ती नदी के कारण ही है। मुलताई के ताप्ती परिसर में साल भर धार्मिक आयोजनों का उत्साह रहता है इसलिए इसे ‘पर्वों की नगरी’ भी की भी संज्ञा मिली है। मुलताई आज पवित्र नगरी और पर्यटन नगरी के रूप में देश के मानचित्र पर अंकित हो गई है। लेकिन उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह नगरी पहले आस्था नगरी के रूप में देश के मानचित्र पर पहले आ गई। 1970 गजेटियर के अनुसार मुलताई में कार्तिक पूर्णिमा को 15 दिनों का मेला बरसों से लग रहा है और शासन की ओर से दी जाने वाली सुविधाओं के कारण यह मेला 15 दिवस से बढ़ाकर 1 माह का हो जाता है।
मुलताई के वर्ष 2019 का यह साल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस साल गुरूनानक देव जी की 550 वी जयंती मनाई जा रही है और यह साल मुलताई में गुरूनानक जी के आगमन की 505वीं वर्षगांठ भी है। गुरूनानक देव जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा को 1469 ई. में हुआ था। उनका जन्म लाहौर के तलवडी नामक ग्राम में हुआ था। गुरूनानक देव जी सिक्ख समुदाय के प्रर्वतक एवं प्रथम गुरू माने जाते हैं। उनके द्वारा लिखे गए गुरूग्रंथसाहब का आज के दिन पाठ किया जाता है। नानक देव जी सामाजिक समरसता के लिए जीवन भर प्रयास करते रहे। धर्म की सही व्याख्या कर, उसका ज्ञान भी उन्होंने करवाया। उन्होंने सर्वधर्म समभाव हेतु सामूहिक भोज लंगर की भी शुरुआत भी की थी। उन्होंने प्रेम और शांति का जो संदेश लोगों को दिया वो आज भी प्रासंगिक है।

यदि हम अतीत की बात करते हैं तो अभिलेखों के अनुसार कार्तिक माह में सन् 1515 ई. में गुरूनानक देव जी गाडरवाड़ा होते हुए सोहागपुर आए थे। वहां से मुलताई में आकर रुकने के बाद वे पांढुरना होते हुए नागपुर से अमरावती गए थे। देश के संतों ने भी राष्ट्र में सामाजिक समरसता के लिए जो कार्य किया उसके फलस्वरूप अनेक लोग गुरूनानक देव जी के अनुयायी बन गए। अपने देशाटन अर्थात देश की यात्रा के दौरान वे जहां-जहां रुके आज वे नगर आस्था के केन्द्र-बिन्दु और तीर्थ के समान माने गये। इसलिए मुलताई आस्था नगरी के रूप भी देश के मानचित्र पर जाने जाना लगा है। आज यहां देश भर के सिक्ख धर्म के अनुयायी आने लगे हैं। ताप्ती नदी के किनारे सात-आठ कुंड परिलक्षित होते हैं। अतः एक कुंड के सामने एक गुरूद्वारा का निर्माण हुआ था। गुरूनानक देव जी ने मुलताई प्रवास के समय संत समागम और प्रवचन दिए थे। आज भी यहां के सिक्ख धर्मावलंबी के अलावा दूसरे लोग भी गुरूद्वारा जाते है।

आज इस प्राचीन गुरूद्वारा के स्थान पर जीर्णोद्धार के बाद नवीनतम सुंदरतम गुरूद्वारा का निर्माण हो गया है। जो राजमार्ग से लगा हुआ है। ग्राम अमरावतीघाट के निवासी और शिक्षक जीतेन्द्र खन्ना के अनुसार, मुलताई के अलावा आज गुरूनानक जी के अनुयायी मुलताई, देवगांव, अमरावतीघाट और जौलखेड़ा में भी हैं। इनकी कई पीढ़ियों के बाद भी आज भी ये गुरूनानक जी की शिक्षा का अनुकरण करते हैं। कई खत्री परिवार आज भी इस क्षेत्र में निवासरत है। गुरूनानक जी के दो पुत्र श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द हुए। उनके पुत्र श्रीचन्द जी के इस क्षेत्र में आगमन के संकेत मिलते हैं। उन्होंने "उदासी' संप्रदाय की स्थापना की थी। ग्राम मुलताई में श्रीचन्द जी की प्रतिमा का होना और आज भी यहां अखंड धूनी का मिलना उनके इस क्षेत्र में आने की भी पुष्टि करते है। ताप्ती किनारे बसे मुलताई और बुरहानपुर में उदासी संप्रदाय के अनेक अनुयायी आज भी निवास करते हैं। मुलताई देश के मध्य-बिन्दु में स्थित है लेकिन यह गुरूनानक जी के देशाटन मार्ग के कारण आज ‘आस्था नगरी’ और ताप्ती उद्गम स्थली के कारण ‘पवित्र नगरी’ भी घोषित हो चुका है। मुलताई अब पर्यटन के नक्शे पर भी तेजी से उभर रहा है और मध्य प्रदेश सरकार भी इस दिशा में लगातार कार्य कर रही है।
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लेख साभारः संजय पठाड़े "शेष' मुलताई के वरिष्ठ साहित्यकार और बैतूल जिले के साहित्य और संस्कृति के शोधकर्ता
(Amit Pathe Pawar is a Journalist and Graphic Designer. Worked with The Times of India, Navbharat Times, Patrika & Dainik Bhaskar.)
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